युवा समाजः साथ या सामने
 
आजकल हमारी युवा पीढ़ी की मानसिक दशा कैसी हो गयी है यह कोई नहीं समझ पा रहा है। छोटी-छोटी बातों पर क्रोधित होने लग गए हैं। यह बीमारी सभी आयुवर्गों के लोगों में देखी जाने लगी है। हमारी सहनशक्ति काफी क्षीण हो गयी है। हमारा स्वीकारोक्ति भाव विलुप्त होता जा रहा है तथा नकारने की प्रवृति बढ़ती जा रही है जिस कारण सभी लोग तनाव की स्थिति में रहने लगे हैं। इससे उबरने के लिए हम विभिन्न आश्रमों व ज्ञानीजनों की शरण में जाने लगे हैं और ऐसा देखा जा रहा है कि वहाँ भी मानसिक शांति की प्राप्ति नही हो रही है। शांत व अशांत ये एक मानसिक स्थिति है जो हमारे संतुष्ट अथवा असंतुष्ट होने पर या प्रसन्नता अथवा अप्रसन्नता की स्थिति से उत्पन्न होती है। यह सिर्फ मानसिक नियंत्रण से ही दूर की जा सकती है।
आज हमने साथ खड़ा होना छोड़ दिया है, हम सामने खड़े हो जाते हैं तथा इसी कारण अहंकार, क्रोध व विरोध के भाव से ग्रसित हो जाते हैं। कारण? हमने जो नकारने की प्रवृति विकसित कर ली है, यह खासकर छात्रों से लेकर युवाओं तक में उग्र रूप में देखने को मिलती है। जैसे-जैसे आयु 35-40 पर पहुँचती है तो व्यक्ति थोड़ा संयमित होना सीख लेता है। इस प्रकार के व्यवहार का कारण उनको बचपन में माता-पिता द्वारा उचित समय न दिया जाना, उनको अच्छी बातों के बारे में न बताना तथा जरा सी जिद करने पर उनकी गलत बातों को मान लेना आदि है। बच्चे जब स्कूल जाते हैं तो वहाँ भी उन्हें अध्यापक सिर्फ पढ़ाते ही हैं और अन्य किसी प्रकार की रूचि बच्चों में नहीं दिखाते हैं। बच्चों के बीच कई प्रकार की समस्याएँ रोजाना उत्पन्न होती रहती हैं, रोजाना आपसी मनमुटाव होते रहते हैं, उनको समझना, समझाना व हल करना भी एक अच्छे अध्यापक का कत्र्तव्य होना चाहिए। ऐसे छात्र जिन्हें घर में माता-पिता से अच्छी परवरिश नहीं मिलती तथा स्कूल में अध्यापक भी उनकी समस्याओं का समाधान नहीं करते वे या तो अवसाद में चले जाते हैं या अति उग्र हो जाते हैं। अवसाद में जाने वाले छात्र कभी-कभी आत्मघाती कदम भी उठा लेते हैं तथा जो छात्र उग्र होते हैं वे मार-पिटाई, सड़कांे पर दंगा करने अथवा रोड-रेज जैसी घटनाओं को अंजाम देते हैं। आज हमारे अधिकतर बच्चों की जो देखभाल घर व स्कूल में होनी चाहिए वह नहीं हो पा रही है तथा समाज में भी कोई ऐसी संस्था नहीं है जो छात्रों व युवाओं को समझ कर उनको उचित दिशा दे सके। हादसा होने के बाद सिर्फ अफसोस करने व पछताने के अतिरिक्त कुछ नहीं बचता।
आज आवश्यकता है कि माता-पिता व स्कूल मिलजुल कर बच्चों के उचित विकास के बारे में सोचें। समाज में भी ऐसी संस्थाएँ बननी चाहिएँ जो बच्चों को संध्याकाल में पंद्रह से बीस मिनट के लिए स्वस्थ रहने, प्रसन्न रहने एवं चरित्र निर्माण की बातों को बताएँ, उनको सुने और समझे। यदि माता-पिता, अध्यापक व समाज सभी मिलकर बच्चों को विभिन्न स्तर पर सुनंे व उनकी समस्याओं को हल करें तो एक अच्छे और युवा समाज का निर्माण हो सकता है।
घर पर माता-पिता अथवा दादा-दादी बच्चों के साथ समय बिताएँ, उनको किस्से कहानियाँ सुनाएँ, उनको छोटी-मोटी शारीरिक क्रियाएँ जिनमें व्यायाम, योग आदि शामिल हों कराएँ तथा उनको इसके लाभ भी बताएँ तो बच्चा इस प्रकार की क्रियाओं को अभ्यास में ले आएगा जो प्रसन्न रहने व सामंजस्य बिठाने में मददगार होता है। इससे बच्चे संयमित हो जाते हैं। कहते हैं शेयर करेंगे तो केयर होगी।
स्कूलों में भी प्रतिदिन 15 मिनट की शारीरिक क्रियाएँ कराई जानी चाहिएँ जिनसे शरीर के सभी अंगो का संचालन हो सके। 2-3 मिनट का प्राणयाम, स्वाँस खींचना व छोड़ना जैसी आसान क्रियाएँ कराकर नवीन ऊर्जा का संचार किया जा सकता है। समूह में बच्चे ऐसी क्रियाओं को आसानी से कर लेते हैं। इस प्रकार के कार्यक्रमों से छात्र में शारीरिक शक्ति भी विकसित होती है तथा साथ ही व परेशानियों व तनाव को भी भूल जाता है। छोटे छोटे अन्तराल के लिए ही सही परन्तु ये क्रियाएं उसको परेशानी से ध्यान हटानेे के लिए अति आवश्यक हैं।
समाज को चाहिए कि वह भी अपने घर के बड़े बुजुर्गों को इस काम में लगाएँ, आस-पास के मैदान, सामुदायिक केंद्र, कोई हाल अथवा अन्य स्थान में बच्चों को भेजा जाए वहाँ उनको बुजुर्गों के साथ समय बिताने के लिए कम से कम आधा घण्टा जरुर छोड़ें। इस प्रकार बुजुर्गों को भी एक आत्म संतुष्टि होगी तथा बच्चों को भी उनके जीवन के अनुभवों का तत्व ज्ञान, समान्य ज्ञान व मूल्यवर्धक बातों की जानकारी अवश्य मिलेगी। ऐसे कार्यांे के लिए सामुदायिक केंद्रो का चयन किया जा सकता है।
आज बच्चों के अन्दर एक तूफान उठा रहता है, उसको शान्त करने कि लिए समाज के सभी वर्गों, माता-पिता, दादा-दादी एवं अध्यापकगण को सम्पूर्ण जिम्मेदारी निभानी होगी। एक दूसरे को विश्वास में लेना होगा। यदि माता-पिता दादा-दादी एवं अध्यापकगण कुछ अतिरिक्त समय बच्चों को दे सकें तो काफी सुधार पाया जा सकेगा।
यदि शुरू में ही ध्यान नही दिया गया तो युवा समाज दिग्भ्रमित हो जाएगा तथा देश का भविष्य क्या होगा इसकी परिकल्पना करना भी भयावह है। मिलजुल कर आपसी सामंजस्य व विश्वास के साथ किए गए कार्याें में सफलता जरूर मिलती है, चाहे वह धीमी रफ्तार की ही हो। युवा देश की अमूल्य निधि हैं हमें इन्हंे सम्भाल कर रखना है।
 
-के0 सी0 पाण्डेय